बिहार

बिहार की राजनीति का कौनसा सा हिस्सा है, किस महानुभाव से ‘घुमाना’ और ‘कसना’ क्या नीतीश कुमार को जानते हैं?

उत्तर

नीतीश कुमार की सिद्धांत क्षमता के आगे नतमस्तक बने बड़े-बड़े दिग्गज।बिहार पॉलिटिक्स में संतुलन साधने की राजनीति में बने हुए हैं नीतीश कुमार।मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिधर होते हैं वहां ही सत्ता का ग्राफ सेट हो जाता है.

पटना. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली गए नहीं कि बिहार की सांख्यिकी में हलचल देखने को मिली। नए से अटकलबाज़ियाँ शुरू हो गईं। हालाँकि, नीतीश कुमार के इस दौरे को निजी तौर पर बताया गया है, लेकिन गठबंधन की राजनीति के भरोसेमंद नीतीश कुमार को लेकर साकबाज़ियाँ जारी हैं। उनकी निजी यात्रा के केंद्र में चर्चा के केंद्र में वह बनी रहीं और डॉयचे मीडिया ने अपनी इस निजी यात्रा को भी इंटरएक्टिव से देखना शुरू कर दिया। आखिर ऐसा क्या संकट या परिस्थिति है जो नीतीश कुमार को लेकर इंटरव्यू गलियारों में हमेशा सस्पेंस बना रहता है। लेकिन, इससे पहले ये जान लें कि नीतीश कुमार के दिल्ली दौरे में क्या-क्या हुआ।

29 सितंबर को दिल्ली दौरे के बाद सीएम नीतीश कुमार दो निजी स्थानों पर जाने के बाद अपने सरकारी आवास क्षेत्र में पहुंचे। यहां पर नोएडा के कई नेताओं ने मुलाकात की। इसके बाद सीएम नीतीश 9 त्यागराज लेन ने केंद्रीय मंत्री और विधायक नेता ललन सिंह को नए सरकारी आवास पर तैनात किया। यहां छोटे समय में रहने के बाद वे 2 तुगलक मार्ग स्थित मध्य प्रदेश में मध्य प्रदेश के मध्य प्रदेश के संजय झा के सरकारी आवास शामिल हैं। इसके अगले दिन 30 सितंबर को सुबह एम्स में अपना चेकअप किया और बाद में अपने सरकारी आवास पर झारखंड के नेता किंग पीटर ने सीएम नीतीश से मुलाकात की। इसके कुछ देर बाद ही वे दिल्ली से पटना के लिए रवाना हो गए। लेकिन, इस दौरान जब तक वे दिल्ली में रहे तब तक पटना से लेकर दिल्ली तक स्टोक्स सरगर्मी बनी रही और सिगरेटबाजों का दौर जारी रहा।

बिहार में नीतीश को साध लिया तो सत्य भी साध लिया जाएगा!
असल में कभी राजद के धुर विरोधी तो कभी भाजपा से दूरियों की बात करते हुए 19 युवाओं तक की राजनीति को साधने में अगर किसी ने हासिल किया है तो वह नीतीश कुमार ही हैं। आख़िरकार वह बिहार की राजनीति में कैसे संतुलन बनाए रखते हैं और कैसे हर बार सेंटर में ही सत्य के टॉप पर नहीं जाते हैं। बिहार की राजनीति का कौन सा हिस्सा है जिसे नीतीश कुमार महान से कुचना और कसाना जानते हैं? वास्तविक, नीतीश कुमार की विशिष्ट विशिष्टताएँ शामिल हैं जिनमें हर सिद्धांत ख़ेमा अपने पाले में करना चाहता है। समसामयिक लेकर हमेशा रसासाक्षी भी मोटरबाइक पर रहता है कि वे अपने खेमे में रहते हैं।

बार-बार सीएम नीतीश की काबिलियत बनी रहती है
असल, डेज़ दो दशक में नीतीश कुमार ने जिस काबिलियत से राजनीति आगे बढ़ाई है, उससे यह बात बार-बार साबित होती दिख रही है कि बिहार की राजनीति के सबसे बड़े पैमाने वाले कारक कोई हैं तो वह नीतीश कुमार ही हैं। इतना ही नहीं बिहार को आधार टूटने पर कई बार केंद्र की राजनीति में भी संतुलन साधे जाते हैं। अगर असलियत के आधार पर आधारित परखें तो साल 2014 के आम चुनाव में सोलोमन, बीजेपी और बीजेपी की अलग-अलग चुनावी लड़कियाँ थीं। ऐसे में एलजीपी को 29.9 प्रतिशत, बीजेपी को 20.5 प्रतिशत और बीजेपी को 16 प्रतिशत प्रतिशत, कांग्रेस को 8.6 प्रतिशत, एलजेपी को 6.5 प्रतिशत मत मिले थे. तीन कम वोट बैंक के साथ नीतीश कुमार खुद एक राजनीतिक ताकत तो नहीं हो सकते, लेकिन उनके साथ मजबूत वो बीजेपी के साथ हो सकते हैं या फिर उनके साथ मजबूत ताकत का दम रखते हैं।

2019 के स्कोर का गणित कुछ और कहानी है!
इसी तरह लोकसभा चुनाव 2019 की बात करें तो बिहार में सभी उम्मीदवारों को कुल मिलाकर 53.3 प्रतिशत वोट मिले थे. भाजपा को 23.6 प्रतिशत, नामांकन को 21.8 प्रतिशत एलजेपी को 7.9 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन मिला। वहीं असफ़लता को 15.4 प्रतिशत और कांग्रेस को 7.7 प्रतिशत मत मिले। जाहिर है नीतीश जी कुमार भी उस गठबंधन का पलड़ा भारी हो गए हैं। बिहार के संदर्भ में ये बात साल 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव में भी साबित हुई, जब नामांकन-बीजेपी ने मिलकर गठबंधन की सरकार बनाई थी. इसी तरह 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी के साथ हुई तो अपार बहुमत से जीत हासिल हुई। तब राष्ट्रीय जनता दल 80 के साथ बड़ी पार्टी रही थी और जनता दल यूनाइटेड को 71 के साथ मिली थी।

2009-10 में गायब थे चेहरे तो आखिरी को मिली बड़ी जीत!
हालाँकि, इसके अपवाद भी हैं जब वर्ष 2009 के आम चुनाव में बीजेपी के साथ तो नीतीश कुमार की पार्टी 20 प्रारंभिक पर जीत हासिल करने में सफल रहीं। इसी तरह साल 2010 के विधानसभा चुनाव में भी नीतीश कुमार ही चेहरे थे और नामांकन-बीजेपी की जोड़ी ने धमाकेदार जीत दर्ज की थी. तब नीतीश कुमार ही बिहार में थे वचे का चेहरा. हालांकि, बाद के दौर में हुए बदलाव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगमन से देश-प्रदेश की राजनीति के तरीके बदल गए। राजनीति के सहयोगी कहते हैं कि राजनीति के संतुलन के बीच एक बड़ी बात यह भी है कि 2010 के बाद से नीतीश कुमार भी किसी न किसी चेहरे के बूटे में अपनी वैतरणी पार का दावा कर रहे हैं।

मतदाताओं का आकर्षण कोई और पर नाम नीतीश का!
वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में विरोधियों ने जीत हासिल की थी तो मुख्य चेहरा और वोट का आधार प्रसाद यादव का था। इसी तरह साल 2019 के आम चुनाव में चेहरे ने बड़ी जीत हासिल की थी, लेकिन चेहरा नीतीश कुमार का नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का था। इसकी एक बैनगी टैब थी जब 2019 में नीतीश कुमार एंटी इंकंबेंसी झेल रहे थे तो नीतीश कुमार ने जमीन के दृश्यों को भांपते हुए वह भी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के नाम पर वोट मजबूत लगे। इसका फल भी मिला और 40 में 39 प्रिविलेज पर जीत हासिल की गई। चेहरा अच्छा ही है, लेकिन जीत का श्रेय तो नीतीश कुमार को ही मिला।

2020 विधानसभा और 2024 का यह गणित भी जानें
इसी तरह अगर नोमान इलेक्शन 2024 की बात करें तो नीतीश कुमार के साथ रहे नीतीश कुमार ने 40 में 30 सीटों पर जीत हासिल की तो वहीं इंडिया अलायंस (महागठबंधन) ने 9 सीटों पर जीत दर्ज की। एक सीट के बारे में बताया गया. बीजेपी और नामांकितों में 12-12 रेज़्यूमे दर्ज की गईं तो 5 रेज़्यूमे पर जीत प्राप्त की गईं। बस्ट में असांस्ट ने 23 पर लड़कियाँ 4 पर पर हमला किया। कांग्रेस ने 9 में 3 तो वामपंथियों में सी क्वेश्चन माले ने 2 पिछवाड़े में 3 तो छोड़े। इसी तरह 2020 विधानसभा चुनाव की बात करें तो 75 प्रतिशत वोट मिले और 23.11 प्रतिशत वोट मिले। यह तब हो गया जब बचपन में बिहार के उभरते नेताओं को देखा गया था, लेकिन नीतीश कुमार का साथ नहीं मिलने से उन्हें अंतिम पायदान पर खड़ा कर दिया गया। बता दें कि 2015 में राजद को 18.35 प्रतिशत वोट मिले थे और 2020 में वोट प्रतिशत में काफी बढ़ोतरी हुई है। वहीं, बीजेपी ने 74 प्रमुख जो 2015 की तुलना में 21 प्रमुख स्थान बनाया। बीजेपी को 19.46 प्रतिशत वोट मिले, जबकि 2015 में 24.42 प्रतिशत वोट मिले थे. 2015 में वोट प्रतिशत में 71 प्रतिशत की कमी आई और वोट प्रतिशत 16.83 प्रतिशत था, लेकिन 2015 में वोट प्रतिशत दोनों में कमी आई। 2020 में 43 क्वार्टरों में जीत मिली और बाकी का प्रतिशत 15.42 प्रतिशत रहा।

जिधर होंगे नीतीश उधर ही होगी सत्ता!
भाजपा और गुट को वोट प्रतिशत के आधार पर दोनों स्तरों पर भारी नुकसान हुआ। लेकिन, बड़ा तथ्य यह है कि बीजेपी और जिले के वोटों के प्रतिशत में भी कमी आई और बाद में भी सरकार की सरकार की ही बनी रही क्योंकि संयुक्त रूप से बहुमत की संख्या 243 विधानसभाओं में 127 तक पहुंच गई. इसमें हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के 4 मंदिर भी शामिल हैं. असल में, यह सच है कि नीतीश कुमार किसी भी गठबंधन में होते हैं तो उनकी ताकत कई गुना बढ़ जाती है। लेकिन, अगर अकेले ताकतें खींचते हैं तो पासा ईस्ट पोस्ट किये जाते हैं। हकीकत पर नजर डाली तो साल 2014 के आम चुनाव में नामांकन, नामांकन और बीजेपी की तीन अलग-अलग चुनावी लड़कियां थीं। वर्ष 2014 में 40 में 38 प्रतियोगियों ने अपना दमखम दिखाया। इस साल 2014 में सुपरमार्केट और पूर्णिया की दो सीटें ही जीत पाई थीं। पॉलिटिकल रिज्यूमे के वर्तमान क्वांटम तो नीतीश कुमार एक समतुल्य फैक्टर अब भी हैं, लेकिन संदर्भ में अब वह जहां-तहां रिज्यूमे साबित होते हैं यह देखने वाली बात होगी।

नीतीश कुमार तराजू का पासंगा हैं!
वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय का कहना है कि नीतीश कुमार स्वयं के साथ बहुत कम वोट बैंक हैं, लेकिन बहुत मजबूत राजनीतिक ताकत नहीं है, लेकिन चेहरे पर कुर्मी और कोइरी और महादलित वोट (लगभग 12 प्रतिशत) का आधार, अलगाव में, नग्न शराब पार्टी और जीविका स्टॉकधारी हैं। को लेकर महिलाओं में उनकी आधारभूत संरचना की स्थिति बताई गई है। ऐसा तो कहा जा सकता है कि वह जिस भी पाले में हैं उसे हासिल करने का दम है। विरोधी राजद और सहयोगी भाजपा दोनों के लिए वह जरूरी और मजबूर हैं, यानी वह तराजू का ऐसा पासंग या पसंगा (ताराजू के दोनों पल्लों पर बिना कोई वजन रखने वाला सूक्ष्म अंतर को दूर करने के लिए पल्ले में बांधा गया पत्थर, गल्ला या आयरन का) टुकड़े) जो जिस पल्ला में जाते हैं वही पल्ला झकझोरते हैं।

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