अगर नहीं बदली ये आदत, 100 में से 90 बच्चों की आंखें हो जाएंगी खराब! एम्स के डॉक्टरों ने दी चेतावनी
अपने रोते बच्चे को चुप कराने के लिए अगर आप भी फोन दिखाते हैं या फोन पकड़ाकर अपने काम में बिजी हो जाते हैं तो आपके लिए बुरी खबर है. 5 साल से कम उम्र के बच्चों में स्मार्टफोन या स्क्रीन देखने की वजह से आंखों की बीमारी तेजी से बढ़ रही है. चीन, जापान सहित कई ईस्ट एशियाई देश पहले ही इस गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं. वहीं अब भारत में भी हालात काफी खराब होते जा रहे हैं. एम्स स्थित डॉ. आरपी सेंटर फॉर ऑप्थेल्मिक साइंसेज के विशेषज्ञों की मानें तो बच्चों की आंखों को खराब करने में पेरेंट्स की यह आदत सबसे अहम रोल अदा कर रही है.
आरपी सेंटर के ऑप्थेल्मोलॉजिस्ट प्रो. रोहित सक्सेना ने बताया, ‘ कई स्टडीज में सामने आया है कि साल 2050 तक पूरी दुनिया में 50 फीसदी लोग आंखों की बीमारी मायोपिया या द्रष्टि दोष से पीड़ित होंगे. ये सभी लोग सिर्फ चश्मा लगाकर ही देख पा रहे होंगे. हालांकि आज की तारीख में भी हालत अच्छे नहीं हैं. ईस्ट एशियाई देशों जैसे चीन, जापान आदि में 5 से 15 साल के 80 से 90 फीसदी बच्चों में मायोपिया की समस्या है. ऐसे समझ सकते हैं कि 50 बच्चों की क्लास में करीब 45 बच्चे चश्मा लगाकर ही देख पा रहे होंगे. जबकि आज से करीब 30-40 साल पहले सिर्फ 5 बच्चे चश्मा पहनते थे और 45 नहीं पहनते थे. हालांकि हालातों को देखते हुए अनुमान लगाया जा रहा है कि यही स्थिति कुछ समय के बाद भारत में भी हो सकती है.
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आरपी सेंटर के प्रोफेसर कम्यूनिटी ऑप्थेल्मोलॉजी डॉ. प्रवीण वशिष्ठ और टीम की ओर से किए गए कई सर्वे यही बात बता रहे हैं कि बच्चों में नजर की समस्या बच्चों में बढ़ रही है. खासतौर पर दिल्ली आसपास के शहरी इलाकों में करीब 20 फीसदी बच्चे पहले से ही चश्मा पहन रहे हैं, या उन्हें जरूरत है.
एक सबसे बड़ी परेशानी ये होती है कि कई बार बच्चों को पता ही नहीं होता कि उन्हें धुंधला दिख रहा है और उन्हें चश्मे की जरूरत है. इसकी वजह से वे न तो पढ़ाई में और न ही खेल-कूद में परफॉर्म कर पाते हैं. वहीं पेरेंट्स और टीचर्स को लगता है कि बच्चा पढ़ाई के कमजोर है या ध्यान नहीं दे पा रहा. जबकि हकीकत ये होती है कि उसे बोर्ड ही नहीं दिखाई देता, वह पढ़ ही नहीं पाता. ऐसा होने पर बच्चों की आंखें जरूर चेक कराएं.
बच्चे बहुत छोटी उम्र में टैबलेट और फोन चला रहे हैं. काफी गाइडलाइंस भी आई हैं और लगातार हम लोग भी पेरेंट्स को समझा रहे हैं कि 2 साल से कम उम्र के बच्चे को स्मार्टफोन देना ही नहीं है. वहीं अगर 8 साल से कम उम्र का बच्चा है तो उसे स्मार्टफोन के बजाय सादा फोन बात करने के लिए दे सकते हैं.
क्या हो मिनिमम स्क्रीन साइज?
डॉ. सक्सेना कहते हैं कि बच्चे को अगर आप स्क्रीन दिखाते भी हैं तो मिनिमम स्क्रीन साइज आपका लैपटॉप या डेस्कटॉप होना चाहिए. इससे छोटा स्क्रीन बहुत नुकसान देता है. जितनी देर और जितनी छोटी स्क्रीन बच्चे इस्तेमाल करते हैं, वह बड़ा रिस्क फैक्टर है.
सबसे छोटी उम्र में होने वाली लाइफस्टाइल डिजीज
बहुत सारी स्क्रीन गाइडलाइंस आई हैं, जिनमें स्क्रीन टाइम को कम करने के सुझाव भी दिए गए हैं. आंखों से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि मायोपिया एक लाइफस्टाइल डिजीज है और यह सबसे कम उम्र में होने वाली जीवनशैली संबंधी बीमारी भी है. अगर लाइफस्टाइल में सुधार किया जाए, आदतें बदली जाएं तो बहुत कुछ सुधारा जा सकता है.
दिल्ली में हुई थी स्टडी
कुछ दिन पहले आरपी सेंटर ने दिल्ली में करीब 10 हजार बच्चों पर स्टडी की थी. इसके लिए ऐसा एरिया चुना गया था, जहां 2001 में भी ऐसी ही एक स्टडी हुई थी. उस समय 7 फीसदी बच्चों में मायोपिया पाया गया था, जबकि 2013 से 16 के बीच में हुई स्टडी के रिजल्ट्स में देखा गया कि यह बढ़कर करीब 21 फीसदी हो गया. इतना ही नहीं कई सर्वे और रिपोर्ट्स के एनालिसिस में भी यह देखा जा रहा है कि ग्रामीण इलाकों में भी मायोपिया तेजी से फैल रहा है.
रोने पर न पकड़ाएं मोबाइल
वहीं प्रोफेसर राधिका टंडन ने कहा कि देखा जाता है कि बच्चा रोता है या परेशान करता है तो पेरेंट्स खुद ही बच्चों को मोबाइल फोन दे देते हैं. पेरेंट्स को इस आदत में बदलाव करने की जरूरत है, अगर ऐसा नहीं किया गया तो जल्द ही बच्चा मायोपिया का शिकार हो जाएगा. मोबाइल फोन्स में चलते-फिरते चित्र और साउंड एक आकर्षण है और बच्चा उसमें लॉक हो जाता है, लेकिन यह उसकी आंखों के लिए अच्छा नहीं है.
पेरेंटल एजुकेशन बहुत जरूरी
प्रो. जीवन एस तितियाल ने पेरेंटल एजुकेशन बहुत जरूरी है. उन्हें चाहिए कि बच्चे को आउटडोर एक्टिविटी के लिए भेजें. अगर पेरेंट्स को हाई मायोपिया है तो बच्चों को भी मायोपिया होने के चांसेज होते हैं. ऐसी स्थिति में तुरंत मेडिकल असिस्टेंस लेने की जरूरत होती है.
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पहले प्रकाशित : 10 अक्टूबर, 2024, शाम 7:06 बजे IST